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ग़ज़ल
कश्कोल-ए-चश्म ले के फिरो तुम न दर-ब-दर
'मंज़ूर' क़हत-ए-जिंस-ए-वफ़ा का ये साल है
मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद
ग़ज़ल
आरज़ू रखना मोहब्बत में बड़ा मज़्मूम है
सुन कि तर्क-ए-आरज़ू ही 'इश्क़ का मफ़्हूम है
तालिब बाग़पती
ग़ज़ल
उमैर मंज़र
ग़ज़ल
दिल-लगी बाद-ए-ख़िज़ाँ कर ले गुलिस्तानों के साथ
हो चले हैं हम भी कुछ मानूस वीरानों के साथ
मंज़ूर अहमद मंज़ूर
ग़ज़ल
बाग़ में हम मर गए महरूम-ए-वस्ल-ए-गुल-बदन
हैं हमारे आज फूल और बुलबुलों के हक़ में ईद
सिराज औरंगाबादी
ग़ज़ल
बादा तो वो भी पीता है लेकिन ब-क़ैद-ए-होश
'मंज़र' को चश्म-ए-ख़ल्क़ में रुस्वा करेंगे हम
सय्यद मंज़र हसन दसनवी
ग़ज़ल
मंज़र-ए-बादा-कशी यूँ तो बहुत देखा है
रंग कुछ और है साक़ी तिरे मयख़ाने का